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औरत - बहुसंख्य है वो !

  • लेखक की तस्वीर: deepasvi mukt
    deepasvi mukt
  • 1 अप्रैल 2022
  • 1 मिनट पठन

अपडेट करने की तारीख: 21 अग॰ 2023

बहुसंख्य है वो, हर तरफ है वो

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समाज के हर टपके में है दिखती।

कभी उठाती है मैला, फोड़ती वो पत्थर

तो कभी हल है वो खींचती।


दुनिया को अर्थव्यवस्था की नीव

इसी ने ही है डाली।

करके इतनी मेहनत भी रहे

उसका ही बटवा खाली।


उसके श्रम हमेशा गिने जाते

कौड़ी के दामों में।

चाहे वो काम करे घर में

या खेतों खदानों में।


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शिक्षा हो या सेहत, अवसर हो या रोजगार

हर जगह होती है वो शोषित।

हँसी आती है तब की, औरतो को है समान दर्जा

होता है ये घोषित।




उसके साथ होनेवाली हर घटना, नाइनसाफी

देती है ये दस्तक।

मूलभूत अधिकारों का मूल पहुँचा ही नहीं

औरत की तरफ़ आज तक।


उसके जीने की डोर उसीके सामने

धीरे धीरे काटी जाती।

इतना हतबल बना दिया जाता उसे

कि वो विरोध भी न जता पाती।


उसे पछाड़ने के लिए उसपर सिर्फ

एक ही न हमला होता।

वर्ग, जाट, अर्थ, धर्म, हर व्यवस्था

का ढाँचा अपना रोल निभाता।


जितना औरत का वर्तमान

इतिहास से है जुड़ा।

उतना ही उसका भविष्य

उसके वर्तमान में अड़ा।


अगर इस भविष्य को

नयी तेजी से करना हो रोशन।

तो रोकना होगा हर जर्रे में

होनेवाला वर्तमान का शोषण।


- दिपा पवार


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